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बूझे लाल बुझक्कड़ – ८

फ़रवरी 2, 2007

ये पुछक्कड़ लगता है फिर से कठिन सवाल पूछ के भाग गया. सवाल पूछे तो पुछक्कड़ और जनता के अण्डे-टमाटर झेले बुझक्कड़, ये कहाँ का न्याय है? पंकज भाई ने तो सीधे-सीधे हाथ खड़े कर दिये. वैसे समीर जी को भी उत्तर नहीं पता था, पर वो घुमाते-घुमाते डकैतों की बस्ती में ले गये! सागर भाई ने सही जगह पर सही अक्ल लगा दी, इतना तो पता लगा ही लाये कि खज़ाना कहाँ छि‍पा है. तो इसी बात के लिये बधाई ले लीजिये सागर भाई!

दिये गये मानचित्र में रंग भरने का आधार था जिनी सूचकांक! बड़ा अजीब सा नाम है यह तो, पर यह आखिर है क्या? आइये जानने का प्रयास करते हैं. भारत के परिप्रेक्ष्य में भी इस सूचकांक की चर्चा करेंगे.

बचपन में गणित की कक्षा याद आती है जब मास्टरजी सवाल पूछते थे, “रामू, तुम्हारी कक्षा में २५ छात्र हैं. अगर मैं तुम्हें ५० संतरे दूँ और कहूँ कि अपनी कक्षा में बाँटो तो हर एक के हिस्से में कितने संतरे आयेंगे?” रामू झट से जवाब दे देता था, “२ संतरे मास्टरजी”. लेकिन रामू को शायद पता नहीं होता था कि दुनियाँ में बंटवारे का गणित इतना आसान नहीं होता. जी हाँ, आज बड़ी से बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की समस्या है सम्पत्ति का असमान वितरण. आज आम आदमी यह कहने से कतई नहीं चूकता कि भारत में अमीर और अमीर होता जा रहा है, तथा गरीब और भी गरीब. पर इस कथन के में सत्य कितना है, इसे भी समझने का प्रयास करेंगे.

कल्पना कीजिये दो विपरीत परिस्थितियों की – पहली जिसमें सम्पत्ति का वितरण सभी लोगों में बराबर-बराबर है, कुछ कम ज़्यादा नहीं, एकदम रामू वाला गणित! और दूसरी परिस्थिति जिसमें सारी सम्पत्ति एक ही व्यक्ति के पास संचित है और बाकी सबके पास कुछ भी नहीं. जिनी सूचकांक किसी भी प्रकार के वितरण को संख्यात्मक रूप से दर्शाने के लिये ० और १ के बीच का एक अंक होता है. पहली (पूर्णत: समान) वितरण की स्थिति का जिनी सूचकांक होता है ० और दूसरी (पूर्णत: असमान) वितरण की स्थिति का जिनी सूचकांक होता है १. पर व्यवहारिक स्थिति तो कुछ बीच की ही होती है, और जैसा कि आप समझ ही गये होंगे कि जिनी सूचकांक जितना कम होता है अर्थव्यवस्था में संपत्ति का बंटवारा उतना ही समान होता है. मान लीजिये कि सबसे गरीब १०% लोगों के पास कुल सम्पत्ति की मात्र २% पूँजी है, सबसे गरीब २०% लोगों के पास ८%, और इसी प्रकार आगे चलते हुये यदि सांकेतिक रूप में कहें तो सबसे गरीब क% लोगों के पास ख% पूँजी है. यह स्पष्ट है कि क का मान ख के मान से कभी कम नहीं होगा, और सम्पूर्ण समानता की स्थिति में क और ख का मान हमेशा बराबर होगा. अब इन्हीं बिंदुओं (ख,क) को जोड-जोड़कर जो वक्र बना उसको कहिये लॉरेंज़ वक्र. जिनी सूचकांक सम्पूर्ण समानता की रेखा “ख = क” और लॉरेंज़ वक्र के बीच का क्षेत्रफ़ल का दुगना होता है. किसी भी तंत्र की असमानता को इस प्रकार संख्यात्मक रूप से निरूपित करने का विचार सबसे पहले १९१२ में इतालवी सांखिकीयविद और समाजशास्त्री कोराडो जिनी के दिमाग़ में आया और आज यह किसी भी देश के सम्पत्ति वितरण में असमानता मापने का मानक तरीका है.

अब बात करते हैं कुछ चुनिंदा देशों के जिनी सूचकांक की.

  • भारत: ०.३२५
  • चीन: ०.४४
  • संयुक्त राज्य अमेरिका: ०.४५
  • रूस: ०.३९९
  • दक्षिण कोरिया: ०.३५८
  • ब्राज़ील: ०.५९७

स्पष्ट है कि भारत में पूँजी का वितरण अन्य कई विकासशील देशों और विकसित देशों की तुलना में आधिक समान है, और हममें से अधिकांश अभी भी रटा-रटाया वाक्य कह देते हैं कि हमारे देश में सारा पैसा अमीरों के पास ही संचित है, जो कि अन्तर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में सही नहीं है. हमारी स्थिति निश्चित ही बेहतर है. न सिर्फ़ बेहतर है, बल्कि दिन-प्रतिदिन और भी सुधर रही है.

“भारत में अमीर और अमीर होता जा रहा है, तथा गरीब और भी गरीब”, इस छपे-छपाये, रटे-रटाये कथन का विश्लेषण करेंगे अगले अंक में. भारत की सम्पत्ति है उसके जी.डी.पी. से कहीं अधिक! कैसे? यह भी जानेंगे अगले अंक में.

साभार: वोलफ़्राम पर जिनी सूचकांक का पृष्ठ, विकिपीडिया पर जिनी सूचकांक का पृष्ठ, विभिन्न देशों का जिनी सूचकांक

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पूछे लाल पुछक्कड़ – ८

फ़रवरी 1, 2007

लाल पुछक्कड़ चाचा हाज़िर हैं एक लम्बे अरसे के बाद. छुट्टी पर थे पुछक्कड़ चाचा, ज़रा निकल गये थे दुनियाँ की सैर पर. बहुत सारे देश देखे, बहुत सारे लोगों से मिले. अमीरों से मिले, ग़रीबों से मिले, फ़कीरों से मिले, लकीरों के फ़कीरों से मिले. बड़े से बड़े भिखारी देखे, पैसों के पीछे पागल शिकारी देखे, रोटी को तरसते लोग देखे, पंचतारा होटलों के भोग देखे. टॉमी को मखमल के गद्दे में सोते देखा, हरिया को कड़ाके की सर्दी में रोते देखा. ये देखा… वो देखा… जाने दीजिये, मुद्दे की बात पर आया जाये.

तो आज का सवाल रहा ये. नीचे दिया जा रहा है विश्व का एक मानचित्र जिसमें अलग-अलग देशों को एक विशेष मानदण्ड के आधार पर अलग-अलग रंगों से दर्शाया गया है. जैसे भारत, रूस, फ़्रांस तथा पाकिस्तान का है एक जैसा धानी रंग और चीन तथा संयुक्त राज्य अमेरिका रंगे हुये हैं कुछ भूरे-गेंहुँए रंग से. तो सवाल तो आप समझ ही गये होंगे! जी हाँ, आपको बताना है कि वह मानदण्ड क्या है जिसके आधार पर इस मानचित्र को रंगा गया है?

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सवाल कठिन है तो अता-पता फिर से बतायें क्या! नहीं बताते. अरे नाराज़ होने की क्या बात है. चलिये आपको खुश करने के लिये निदा फ़ाज़ली की एक ग़ज़ल की दो पंक्तियाँ सुना देते हैं अपनी आवाज़ में – दो में दो का भाग हमेशा एक कहाँ होता है, सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला!

मानचित्र साभार: विकिपीडिया

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भारत:व्यक्ति बनाम तंत्र

जनवरी 24, 2007

हमारे समाज में यह आम धारणा है कि व्यक्ति विशेष तो अपने दम पर बहुत कुछ अर्जित कर सकता है, सफलता की नयी-नयी ऊँचाइयां छूकर नित नये मानदण्ड स्थापित कर सकता है, परन्तु उसके इस विकास में हमारे देश के मूलभूत ढाँचे का योगदान न के बराबर ही है, या कहिये कि है ही नहीं! तो सवाल उठता है कि इस अवधारणा में सच्चाई आखिर कितनी है? आइये चर्चा करें.

एक समाज को समझने और उस पर अपनी राय बनाने के मापदण्ड उन मापदण्डों से सर्वथा भिन्न हैं जो कि एक व्यक्ति विशेष को समझने और उस पर अपनी राय बनाने के लिये चाहिये. या यूं समझिये कि समाज को जानने का प्रयास करना मतलब एक वृहत् या स्थूल अध्य्यन और उस समाज के व्यक्तियों को एक-एक कर समझना मतलब एक सूक्ष्म अध्ययन. इसी बात को गणित की भाषा में कहा जाय तो यह कि एक समाज का स्थूल स्वरूप उसके व्यक्तियों के सूक्ष्म वैयक्तिक गुणों का औसत मान है, जो कि बहुमत के आस-पास ही है. और जैसा कि सांखिकीय तथ्य है, एक व्यक्ति विशेष के वैयक्तिक गुण-धर्म पूरे समूह के औसत गुण-धर्मों के औसत मान से बहुत अधिक विचलित हों, ऐसा विरले ही होता है, आखिरकार सूक्ष्म वैयक्तिक गुण ही तो पूरे समाज को एक वृहत् स्वरूप प्रदान करते हैं.

कोई भी निर्जीव भौतिक तंत्र हो, पूरे तंत्र की किसी भी विशेषता को समृद्ध करने के लिये एक प्रकार की वाह्य ऊर्जा चाहिये. इसी प्रकार, यदि सामजिक तंत्र की बात की जाय तो उसकी समृद्धि और विकास के लिये भी वाह्य संस्कृतियों की रोशनी समाज में आती रहनी चाहिये. पर इसके अलावा बहुत सी नयी-नयी बातें जानने और सीखते रहने की मानवीय उत्कंठा भी नये लक्ष्य निर्धारित करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण उत्प्रेरक है. कई बार एक व्यक्ति विशेष की ऐसी ही उत्कंठा उसे वर्तमान सामाजिक सीमाओं से परे सोचने को प्रेरित करती है और देखते-देखते यही उत्कंठा एक प्रेरणा की तरह पूरे तंत्र में फैल जाती है और समाज को एक नयी दिशा देती है. दिलचस्प बात यह है कि लगभग प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में कभी न कभी एक ऐसे दौर से गुज़रता है जब उसमें सीमाओं को लांघकर कुछ हटकर करने की तीव्र लालसा होती है, पर अधिकांश व्यक्तियों में यह एक क्षणिक उद्वेग ही होता है और वे भी फिर से भीड़ में ही कहीं खो जाते हैं, या कई बार तो भीड़ ही उन्हें अपनी ओर खींच लेती है! और इस प्रकार अक्सर “समाज” ही वैयक्तिक उत्कंठाओं के दमन का कारण बनता है. यह समाज का वह अंग होता है जो कभी स्वयं नये मार्ग पर जाने में असफल रहा होता है.

क्या कोई ऐसा उपाय है कि समाज के इस अंग के कुप्रभाव से बचा जा सके? एक व्यक्ति का पूरे समाज पर क्या प्रभाव होता है? इतिहास साक्षी है कि अतीत में जितने भी सामजिक, दार्शनिक अथवा वैज्ञानिक परिवर्तन हुए, उनमें एक व्यक्ति विशेष अथवा छोटे समूह को ही लीक से हटकर चलना पड़ा और धीरे-धीरे समाज भी उनके साथ हुआ. इस सम्बन्ध में अमूल एक अच्छा उदाहरण है. कुछ ग्रामवासियों की एक पहल को वर्गीस कुरियन का नेतृत्व मिला और समूचे देश में श्वेत क्रांति आ गयी. इसी प्रकार हाल में नोबल पुरस्कार के कारण चर्चा में आयी बंग्लादेश की ग्रामीण बैंक का सपना साकार करने वाले मुहम्मद युनुस ने विपरीत परिस्थितियों का सामना करके एक मिसाल खड़ी की है. पर एक दृष्टि से देखा जाय तो क्या परिवर्तन का यह तरीका बहुत अक्षम नहीं है! याद कीजिये १८५७ की क्रांति जो इतिहास के पन्नों में एक विद्रोह बनकर रह गयी! कुछ व्यक्तियों द्वारा शुरु किये गये इस पुण्य कार्य को ब्रितानी सरकार सिर्फ़ इसलिये कुचल पायी क्योंकि सामाजिक चेतना का अभाव था. यदि सामजिक चेतना एक साथ जागृत हो जाय तो क्या नहीं हो सकता! वे व्यक्ति जिनकी सोच इस दिशा में सकारात्मक है, यदि एक साथ आगे आयें तो हमें क्यों उन व्यक्तियों के अवतरित होने की प्रतीक्षा करनी पड़े जो समाज को अपने बलबूते पर आगे बढायें? कदम-कदम से ही कारवां बनता है, और यही तो लोकतंत्र का सार है.

यह समझना आवश्यक है कि यदि समाज का ही एक अंग खुली और सकारात्मक सोच वाले व्यक्तियों को आगे आने से रोकेगा तो सबको सामूहिक जिम्मेदारी का बोझ उठाने को तैयार रहना चाहिये. समाज का प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह कितना भी विवेकी, समृद्ध अथवा सफल क्यों न हो – सभी को अपने दृष्टिकोण में यथोचित परिवर्थन करना होगा. हम अभी तक लोकतंत्र की शक्ति और उसके संभावित परिणामों को नहीं समझ पाये हैं, इन्हें जल्दी ही समझना बेहतर होगा.

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कहानी दो अंकों की

जनवरी 21, 2007

कला और विज्ञान को आमतौर पर अलग-अलग श्रेणियों में रखा जाता है. अंग्रेज़ों द्वारा तैयार की गयी वर्तमान भारतीय शिक्षा प्रणाली में भी दोनों विषय माध्यमिक स्तर पर ही अलग कर दिये जाते है. क्या कला और विज्ञान साथ-साथ नहीं चल सकते? अगर कोई कहे कि कम्प्यूटर क्रांति कला की एक बड़ी देन है तो उस व्यक्ति पर निश्चित रूप से संदेह की दृष्टि से देखा जायेगा!

कला और विज्ञान का एकात्म स्वरूप के ईसा से कोई ५०० वर्ष पूर्व भारतीय विद्वान पिंगल को विदित था. यदि कहें कि कम्प्यूटर क्रांति का स्रोत पिंगल की इसी सोच में छिपा है, तो गलत न होगा! कैसे? आइये जानने का प्रयास करें.

कम्प्यूटर जो भी कुछ करता है, उसमें एक गणना छिपी होती है. अब एक निर्जीव वस्तु गणना कैसे करे, और उस वस्तु को गिनती समझायी जाय तो भला कैसे! यह सब संभव है द्विअंकीय प्रणाली के माध्यम से. ये दो अंक १ और ० हार्ड डिस्क के किसी क्षेत्र के चुम्बकीयकृत होने या न होने को निरूपित कर सकते हैं या सी.डी. के किसी स्थान पर प्रकाश के ध्रुवीयकरण की दो अलग अवस्थाओं को भी. अब प्रश्न यह है कि इसमें कला कहाँ से आ गयी? तो जवाब है कि यह विचार कि किसी वस्तु की दो अवस्थाओं के आधार पर कोई भी कठिन से कठिन गणना संभव है, कला से ही आया. अब सोचिये न, ये दो अवस्थायें कविता में प्रयोग किये जाने वाले छन्दों के किसी स्थान पर लघु अथवा गुरु होने का निरूपण भी तो कर सकतीं हैं! द्विअंकीय सिद्धान्त यहीं से आया! पिंगल के छन्द शास्त्र में पद्यों में छिपे इस सिद्धान्त का वर्णन बहुत सहजता और वैज्ञानिक ढंग से किया गया है.

पिंगल ने कई छन्दों का वर्गीकरण आठ गणों के आधार पर किया. इस वर्गीकरण को समझने के लिये पहले देखें एक सूत्र: “यमाताराजभानसलगा“. यदि मात्रा गुरु है तो लिखें १ और यदि लघु है तो ०. अब इस सूत्र में तीन-तीन अक्षरों को क्रमानुसार लेकर बनायें आठ गण,

  • यगण = यमाता = (०,१,१)
  • मगण = मातारा = (१,१,१)
  • तगण = ताराज = (१,१,०)
  • रगण = राजभा = (१,०,१)
  • जगण = जभान = (०,१,०)
  • भगण = भानस = (१,०,०)
  • नगण = नसल = (०,०,०)
  • सगण = सलगा = (०,०,१)

अब ये आठ गण यूँ समझिये कि हुये ईंट, जिनसे मिलकर कविता का सुंदर महल खड़ा है. इन ईंटों का प्रयोग करके बहुत से सुंदर छन्द परिभाषित और वर्गीकृत किये जा सकते हैं. यही नहीं, ये आठ गण ० से लेकर ७ तक की संख्याओं का द्विअंकीय प्रणाली में निरूपण कर रहे हैं, सो अलग. और तो और इनमें गणित की सुप्रसिद्ध द्विपद प्रमेय [Binomial Theorem] भी छिपी बैठी है! यदि ल और ग दो चर हैं [या दो अवस्थायें हैं], तो (ल+) के विस्तार में लग का गुणांक = उन गणों की संख्या जिनमें दो लघु तथा एक गुरु है = ३ [ज‍गण, भगण, सगण]. तो इस प्रकार (ल+) = ल+ ३ल+ ३लग+ .

छन्दों से गणित और कम्प्यूटर विज्ञान का यह रास्ता पिंगल ने दिखाया. क्या यह एक संयोग ही है कि छन्दों के अध्ययन में भी हम विश्व में अग्रणी रहे और आज २५०० वर्षों के बाद कम्प्यूटर विज्ञान में भी अपनी सर्वोत्कॄष्टता सिद्ध कर चुके हैं! शायद यह सब हमारे उन पुरखों का आशीर्वाद है जिनकी कल की सोच की रोशनी हमारे आज को प्रकाशित कर रही है.

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आसमान से आगे

जनवरी 17, 2007

एक और सफ़ल प्रक्षेपण! भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने १० जनवरी २००७ को ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण वाहक (पी.एस.एल.वी.) को चार उपग्रहों के साथ आकाश में रवाना कर वर्ष की धमाकेदार शुरुआत कर ही दी. एक वाहक में चार उपग्रह अपने आप में बड़ी उपलब्धि है. इन चार में से दो उपग्रह हमारे थे और दो दूसरे देशों के.

जब भी इसरो ऐसी सफलता प्राप्त करता है, मुझे दो घटनायें याद आ जाती हैं. तो पहले उन्हीं का उल्लेख करते हैं. पहली घटना है, प्रख्यात रसायनज्ञ प्रो. रघुनाथ अनंत मशेलकर का एक व्याख्यान जिसमें उन्होंने भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियों का ज़िक्र किया था. वे दक्षिण अफ़्रीका में एक ऐसे उपग्रह केन्द्र की यात्रा पर थे जहाँ विश्व के अनेक देशों द्वारा अंतरिक्ष में स्थापित उपग्रहों से प्राप्त जानकारी एकत्रित की जाती है और यथोचित रूप से वितरित की जाती है. प्रो. मशेलकर ने केन्द्र के अधिकारियों से अनुरोध किया कि वे उपग्रहों से प्राप्त सर्वश्रेष्ठ तस्वीरें उनको दिखायें. अधिकारी उनको एक कोने में ले गये और वहाँ आई.आर.एस.-१ सी द्वारा ली गयी तस्वीरें दिखायीं. जी हाँ, आई.आर.एस. मतलब इण्डियन रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट! प्रो. मशेलकर के लिये यह हर्ष और गर्व की सुखद अनुभूति थी.

दूसरी घटना है मई १९९८ की जब भारत ने नाभिकीय परीक्षण किये थे. उसके बाद अमेरिकी खुफिया विभाग सी.आई.ए. को सरदर्द हुआ कि उनके “की होल श्रृंखला” के जासूसी उपग्रह, खास तौर पर के.एच.-११, भला इस बात का पता पहले से कैसे नहीं लगा पाये. इस बारे में एक भारतीय अधिकारी ने कहा था कि यह अमेरिका की असफ़लता नहीं बल्कि भारत की सफ़लता है. हमको पता था कि उनके उपग्रह कब और क्या देखने में सक्षम हैं. इसका अर्थ अमेरिकी खुफ़िया विभाग के ही एक अधिकारी के इस कथन से समझा जा सकता है – “जिस देश के पास खुद इस तरह के आधा दर्जन उपग्रह हों, और जिसके एक दर्जन से अधिक उपग्रह अंतरिक्ष में घूम रहे हों, उसको आप इस प्रकार से बेवकूफ़ नहीं बना सकते. वे अच्छी तरह से जानते थे कि हम क्या देख रहे हैं और क्या नहीं”!

आइये जानें कि अपनी स्थापना के पश्चात् पिछले ४० वर्षों में इसरो की क्या उपलब्धियाँ रहीं. एक प्रक्षेपण में दो मुख्य भाग होते हैं – वाहक और उपग्रह. इन दोनों में प्रयोग होने वाली तकनीकियाँ सर्वथा भिन्न और क्लिष्ट होती हैं. और खर्चा तो होता ही है (हालांकि इसरो नासा के वार्षिक बजट के पचासवें हिस्से से भी कम धन में काम चला लेता है!). इसरो ने शुरु में उपग्रह निर्माण की तकनीकी विकसित की और अपने उपग्रहों को विदेशी प्रक्षेपकों सहायता से अंतरिक्ष में स्थापित किया. साथ-साथ प्रक्षेपक राकेटों के निर्माण की ओर भी ध्यान दिया गया. शुरु के प्रक्षेपक राकेट, जैसे एस.एल.वी.-३ कम भार वाले उपग्रहों (लगभग ४० किलोग्राम) को ही पृथ्वी से करीब ४०० किलोमीटर तक ले जाने में सक्षम थे. हमने प्रगति जारी रखी और यह सफ़र ए.एस.एल.वी. और पी.एस.एल.वी. से होते हुये अब जी.एस.एल.वी. तक आ पहुँचा है जो करीब २००० किलोग्राम के उपग्रह को भूस्थैतिक कक्षा (पृथ्वी से ३६००० किलोमीटर) में स्थापित करने में सक्षम है! यहाँ यह इंगित करना उचित होगा कि इसमें से अधिकांश तकनीकी स्वयं इसरो ने विकसित की है. यह कुछ निराशावादी भारतीयों और निष्क्रिय मीडिया की ही सोच की देन है कि हममें से बहुतों के विचार से हम विदेशों से तकनीकी खरीदते हैं या नकल करते हैं. खैर, मीडिया वाले भी दिवाली का राकेट बनाने और जी.एस.एल.वी. बनाने में अंतर की समझ कहाँ से रखें! रूस के नकलची – यह है खिताब हमारे कर्मठ वैज्ञानिकों और अभियन्ताओं का! ये वही वैज्ञानिक हैं जिन्होंने क्रायोजेनिक इंजन की तकनीकी स्वयं ही विकसित कर ली है! जाने दीजिये, इस बारे में चर्चा फिर कभी.

आज इसरो आकाश से बातें कर पा रहा है क्योंकि उसकी नींव विक्रम साराभाई, सतीश धवन, ए.पी.जे. अब्दुल कलाम और अन्य वैज्ञानिकों के मजबूत कंधों पर रखी गयी है. अभी आने वाले समय में चन्द्रयान-१ और २, जी.एस.एल.वी. एम.के.-२,३,४ की परियोजनायें प्रमुख हैं. इसरो निश्चित ही विश्व-स्तर का कार्य कर रहा है. हमारे पास टी.ई.एस., कार्टोसेट – १ और २ ऐसे उपग्रह हैं जिनकी विभेदन क्षमता १ मीटर से भी बेहतर है, और गुणवत्ता की दृष्टि से इनसे ली गयीं तस्वीरें “गूगल अर्थ” की सर्वश्रेष्ठ तस्वीरों के आस-पास हैं.

अब चर्चा करते हैं १० जनवरी को किये गये प्रक्षेपण की. प्रक्षेपण वाहक था पी.एस.एल.वी. सी.-७. यह पी.एस.एल.वी. द्वारा किया गया दसवाँ प्रक्षेपण था. इनमें पहले के अलावा बाकी नौ पूर्णत: सफ़ल रहे. इस बार पी.एस.एल.वी का काम था चार उपग्रहों को एक साथ अंतरिक्ष में लेकर जाना. इनमें से दो उपग्रह कार्टोसेट-२ और स्पेस रिकवरी कैप्सूल भारत के थे और एक था इंडोनेशिया का उपग्रह और दूसरा अर्जेन्टीना का ६ किलोग्राम का छोटा सा उपग्रह. ये चारों ६४० किलोमीटर की ऊँचाई पर स्थित ध्रुवीय कक्षा में सफ़लता पूर्वक छोड़ दिये गये. यह बारीक काम कितनी खूबसूरती से किया गया, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मुख्य उपग्रह कार्टोसेट-२ को बिलकुल सही कक्षा में स्थापित करने में अपेक्षा से बहुत कम ईंधन खर्च हुआ और इससे उसकी उम्र दो वर्ष और बढ़ गयी!

इस प्रक्षेपण का मुख्य उपग्रह कार्टोसेट-२ एक दूर संवेदी उपग्रह है जिसका (पैन्क्रोमैटिक) कैमरा एक मीटर से भी बेहतर विभेदन क्षमता वाली तस्वीरें लेने में सक्षम है. इन तस्वीरों का उपयोग भारत और दूसरे देशों द्वारा शहर योजनाओं और कृषि में फ़सलों के निरीक्षण के लिये किया जायेगा. ऐसे उपग्रहों की तस्वीरें सैनिकों के लिये भी मददगार साबित हो रही हैं. उदाहरण के लिये कारगिल युद्ध में आई.आर.एस. से ली गयी तस्वीरें घुसपैठियों का ठिकाना ढूँढने में बहुत कारगर साबित हुयीं थीं. ऐसे अनुभव से प्रेरणा लेकर सन् २००१ में टी.ई.एस. उपग्रह बनाया गया जो पूरी तरह से भारतीय रक्षा सेनाओं को समर्पित है!

पी.एस.एल.वी. पर भारत भूमि से अंतरिक्ष तक की सवारी करने वालों में एस.आर.ई. (स्पेस कैप्सूल रिकवरी एक्सपेरिमेंट) भी है. यह एक विलक्षण प्रयोग है. करीब १२ दिन तक अंतरिक्ष यात्रा कराने के बाद २२ जनवरी को एस.आर.ई. को वापस धरती पर बुलाया जायेगा! यह बंगाल की खाड़ी के निकट पैराशूटों की सहायता से उतारा जायेगा जहाँ तट रक्षक इसके स्वागत के लिये पहले से ही उपस्थित होंगे. यह अद्भुत प्रयोग अंतरिक्ष में मानव भेजने की दिशा में भारत का पहला कदम भी माना जा सकता है. एस.आर.ई. को सफ़लतापूर्वक वापस बुलाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है. वापस आते समय हवा के घर्षण के कारण इसकी बाहरी सहत पर तापमान होगा करीब २००० डिग्री सेल्सियस, जबकि अंदर का तापमान करीब ४० डिग्री सेल्सियस. उल्लेखनीय है कि ऐसी परिस्थितियों का सामना भारतीय वैज्ञानिक अग्नि मिसाइल के समय पहले ही सफ़लतापूर्वक कर चुके हैं! एस.आर.ई. के प्रयोग की सफ़लता या असफ़लता इसरो की भावी दिशा निर्धारित करेगी.

सम्बन्धित कड़ियाँ:
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन का जालघर, पी.एस.एल.वी. प्रक्षेपण की आधिकारिक सूचना, सी.एन.एन. आई.बी.एन. पर प्रक्षेपण का समाचार (वीडियो)

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आर. के. लक्ष्मण

अक्टूबर 20, 2006

उम्र कुछ पचास की होगी, सिर पर बालों का नामो-निशान नहीं, एक धोती और सादी सी कमीज के एक साथ चश्मा, जो मानो अभी नाक से फ़िसलने ही वाला है! यह आखिर है कौन? अरे! ये तो मैं हूं, आप भी हैं – यह है एक आम आदमी! सुप्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आर.के. लक्ष्मण का आम आदमी. बरसों से अपने कितने ही दिनों की शुरुआत करते आ रहे हैं हम समाचार पत्रों के पहले पन्ने के किसी कोने में बैठे इस आम आदमी के साथ. हममें से कितनों के जीवन में हर दिन एक नयी प्रेरणा, एक नयी ऊर्जा का संचार करता आ रहा है हमारा अपना ही प्रतिबिंब यह आम आदमी, मानो कि धुंधलके में एक आशा की किरण हो. समय चुनावों का हो या घोटालों का, या फिर कोई भ्रष्टाचार, हमारा यह आम आदमी सब पर अपनी पैनी रखता आ रहा है. उसकी खामोशी में कभी परिपक्वता नज़र आती है, तो कभी मजबूरी. वह हमारे देश की आम जनता का सच्चा प्रतिनिधि है.

आमतौर पर माना जाता है कि कार्टून मासूम बच्चों के दिलों को ही छूते हैं. कार्टूनों की दुनियां में मनुष्य व अन्य जानवर बड़े ही laxman3.jpg सामंजस्य के साथ रहते हैं. विज्ञान के शुष्क सिद्धान्तों का कार्टूनों में कोई स्थान नहीं होता, बल्कि एक विचित्र कल्पना ही उभरकर सामने आती है. कार्टूनों का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन ही होता है अत: उनके संसार कोई पीड़ा नहीं होती, पर लक्ष्मण के कार्टून इन सबसे हटकर हैं. उनके कार्टून पात्र उसी हवा में सांस लेते हैं जिनमें एक आम भारतीय. राह चलते, बाज़ारों में, घर पर या कार्यालय में जो भी कष्ट एक आम भारतीय को हो सकते हैं वे सभी कष्ट लक्ष्मण के पात्र हमारे साथ बांटते हैं.

आर.के. लक्ष्मण का जन्म १९२४ में सांस्कृतिक नगर मैसूर में हुआ. वे आठ भाई-बहनों में सबसे छोटे हैं. मैसूर के प्रतिष्ठित महाराजा कालेज से स्नातक के पश्चात उन्होंने १९४७ में कार्टूनों की दुनियां में कदम रखा. टाइम्स आफ़ इण्डिया समाचार पत्र में उन्होंने “यू सैड इट” नामक कार्टून श्रृंखला शुरू की जिसके माध्यम से उनका आम आदमी हर एक आम आदमी से रोज़ सुबह मिला करता था. कार्टूनों के अलावा उन्होंने कुछ लघु-कथायें, निबन्ध, यात्रा वृतांत व उपन्यास भी लिखे और बाद में “द टनल आफ़ टाइम” नाम से अपनी आत्म-कथा भी प्रकाशित की.

उनके बड़े भाई आर.के. नारायण की कहानियों पर आधारित दूरदर्शन धारावाहिक “मालगुडी डेज़” के छोटे से कस्बे की मिट्टी मानो लक्ष्मण के कार्टूनों को पाकर सोंधी होकर महक उठी हो. जब स्वामी क्रिकेट खेलता नज़र आता है, तब अहसास होता है कि वे पात्र कितने सच्चे थे, कितने जीवंत थे. मुझे वे सभी चेहरे अच्छे से याद है; उन्हें कोई भूल भी कैसे सकता है आखिर.

लक्ष्मण अपने काम में छोटी से छोटी बारीकियों पर विशेष ध्यान देते हैं. किसी स्थिति विशेष अथवा पात्रों के उल्लास, निराशा या धैर्य का चित्रण करना हो तो उनके द्वारा उकेरी हुई कुछ घुमावदार रेखायें ही काफ़ी होती हैं. उनके कार्टूनों की सरलता ही उनकी सुंदरता है और उनका हास्य पक्ष भी. उनका सबसे लोकप्रिय पात्र अपने आस-पास की घटनाओं का एक मूक दर्शक है, जिसके हाव-भाव ही उसकी मनो: स्थिति स्पष्ट कर देते हैं.

आर. के. लक्ष्मण को केवल एक कार्टूनिस्ट ही नहीं कहा जा सकता. उन्होंने एक सीधे-सच्चे व्यंग्य के माध्यम से हमें सामाजिक और राजनैतिक रूप से अधिक जागरूक भी बनाया है. यदि उनके कार्टून न होते तो हममें से कई लोग, भ्रष्टाचार और आये दिन होने वाले घोटालों से तंग आकर निराशावादी हो जाते. जो निश्चेष्ट हुए उनको लक्ष्मण के कार्टूनों ने एक मूक दर्शक से सक्रिय किया – कुछ आड़ी-तिरछी रेखाओं, वक्रों और पेंसिल थामे सधे हुये हाथों तथा एक तीक्ष्ण दिमाग़ की चतुराई भर से ही!

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हमारी पहचान – भाग ३

अक्टूबर 17, 2006

यह आलेख मूलत: एक टिप्पणी का जवाब है जो हमारे पिछले आलेख पर आयी थी (हमारे अंग्रेज़ी चिट्ठे में)

टिप्पणी: “विदेशियों के भारतीय लोगों से घृणा करने का कारण है कि अभी तक हमारी परम्परागत छवि बनी हुई है. बहुत से विदेशी भीड़-भाड़ वाले और प्रदूषित शहरों को लेकर शिकायतें करते हैं. बड़े शहरों जैसे मुम्बई, दिल्ली और बंगलौर में भी सबसे पहले आपकी नज़र भिखारियों पर पड़ती है. हम प्रगति तो कर रहे हैं, पर इन सभी कारणों से हमारी छवि जस-की-तस बनी हुई है.”

हमारे आलेख का मुख्य बिन्दु यह नहीं था, पर बात निकली है तो उस पर विचार भी होना चाहिये. इस टिप्पणी में जो कुछ कहा गया, काफ़ी सीमा तक सच भी है और चिंता का विषय भी. सबसे पहले  हमारी परम्परागत छवि आखिर है क्या? गन्दे शहर, गन्दे लोग? उससे भी पहले – हमारी परम्परा क्या है? यदि आप सोच रहे हैं कि प्रदूषित और भीड़-भाड़ वाले इलाके हमारी परम्परा हैं तो यह गलत है. तो आईये बात करें हमारे दो अलग-अलग पहलुओं की – हमारी परम्परा और हमारी परम्परागत छवि.

यदि बाहर के लोग सोचतें हैं कि गन्दगी ही हमारी परम्परा है, तो उनका भी क्या दोष! हां स्वयं अपने बारे में न जानना हमारे दोष अवश्य होगा. मैं एक उदाहरण देता हूं, जो ज़रा कुछ हटकर है. अमरीकी लोगों को देखिये, अंग्रेज़ी का उन्होंने जितना बेड़ा-गर्क किया है उतना किसी और ने नहीं! पर हमारे देश में इस टूटी-फूटी, या कहिये तोड़ी-फोड़ी गयी अमरीकन अंग्रेज़ी को बोलना आधुनिकता की निशानी माना जाता है. यदि नयी दिल्ली स्टेशन पर मैथिली या भोजपुरी में घोषणायें की जायें तो हम कहेंगे “भैया, किस गंवार को अनाउन्सर बना के बिठा दिया है”. ध्यान रहे, मैथिली और भोजपुरी हिन्दी की बोलियां हैं, हिन्दी का विकृत स्वरूप नहीं. क्या लास-एंजिल्स हवाई अड्डे पर विकृत अंग्रेज़ी में होने वाली घोषणाओं पर भी हमारी यही प्रतिक्रिया होगी? कतई नहीं!

परम्परायें आसमान से उतरकर नहीं आतीं, उन्हें हम बनाते हैं. हम जो आज करते है, कल वह परम्परा बन जाता है. कल्पना कीजिये, मुम्बई से फ़्रेंकफ़र्ट जाने वाले जहाज में कोई भारतीय नवयुवक धोती पहनकर आता है. यह निश्चित है कि उसको विदेशी लोग तो नहीं, पर हम जरूर जोकर कहेंगे. और कोई विदेशी जो बरमूड़ा पहनकर घुसा वह, उसका क्या? जब हम भारत में ही बड़ी-बड़ी दुकानों – वेस्ट साईड, रीबाक, प्लानेट एम इत्यादि में खरीदारी करने जाते हैं तब हिन्दी या क्षेत्रीय भाषा नहीं बोलते, आखिर  क्यों? ऐसा नहीं है कि हमें हिन्दी या क्षेत्रीय भाषा नहीं आती, घर पर तो दूध वाले और धोबी से हम अंग्रेज़ी में बात नहीं करते ना! हम सोचते हैं कि बड़ी जगहों पर अपनी भाषा बोलने से बाकी लोग हमें पिछड़ा समझेंगें. हमें अपनी छवि की कितनी चिन्ता है, और वह भी अपने ही लोगों के सामने! कैसी विडम्बना है, हम अपने लोग आपस में बात करने के लिये विदेशी भाषा की सहायता लें, और वह भी तब जब सामने वाले को भी अपनी देसी भाषा अच्छी तरह से आती है! हमारा आचरण देखकर ही हमारे बच्चे सीखते हैं, और परम्परायें बस ऐसे ही बनती हैं.

अब बात करते हैं हमारी बाहरी छवि, जैसे शहरों में गन्दगी के ढेर इत्यादि. आप ज़रा पहले भीड़-भाड़ वाले यूरोपीय शहर देखिये – पेरिस, फ़्रेंकफ़र्ट, बर्लिन, ब्रसेल्स आदि. इस दुनियां में ऐसा कौन सा शहर है जिसकी उपनगरीय रेल सेवा एक दिन में ६० लाख यात्रियों को ढोती हो? और वह भी जमीन के नीचे नहीं ऊपर! मुम्बई का कोई मुकाबला नहीं. पेरिस की मेट्रो सेवा ४० लाख यात्रियों को प्रतिदिन ढोती है (जमीन के नीचे!), और उसके स्टेशन कितने साफ़ हैं? आप वहां के स्टेशनों पर लगे टाइल्स न देखिये, असली गन्दगी की बात कीजिये. हमारी परिस्थितियों के हिसाब से हम बहुत अच्छा कर रहे हैं, यह मानना होगा. मैं प्रदूषण की पैरवी नहीं कर रहा, बल्कि यह कह रहा हूं कि प्रदूषण एक कीमत है जिसे आज दुनियां का हर बड़ा शहर चुका रहा है. मुख्य प्रश्न यह है कि हम इस बारे में क्या कर रहे हैं. हमारी प्रवृत्ति यह हो चली है कि हम किसी भी समस्या के ऊपर बैठ जाते हैं और चिल्लाने लगते हैं, समाधान का प्रयास भी नहीं करते. यदि आज सरकार निजी वाहनों पर प्रदूषण कर लगा दे तो कितने ही सरकार विरोधी नारे तैयार हो जायेंगे, सरकार को चूना लगाने के नये तरीके भी इज़ाद हो जायेंगे. कभी सोचिये कि इन विकसित देशों के लोग अपने-अपने देश की सरकारों को कितना सारा कर ईमानदारी से देते हैं. विकास मुफ़्त में नहीं आता, हमें कुछ तो कीमत अदा करनी होती है, प्रदूषण के रूप में हो, या कर के रूप में – पसंद अपनी अपनी!

पूरे १५० साल के शोषण के बाद हमें स्वतंत्रता मिली. पिछले ६० सालों में विभाजन की विभीषिका के बाद घुली धार्मिक कड़वाहट, गरीबी, जनसंख्या और नौकरशाही जैसी समस्याओं से जूझने के बाद भी तेज़ी से विकास की राह पर अग्रसर है, क्या यह मायने नहीं रखता? अभी इस वर्ष के शान्ति के नोबेल पुरस्कार विजेता श्री मुहम्मद यूनुस का नाम याद आ रहा है जिन्होंने अपने घर सोफ़े पर बैठे हुए टी.वी. पर गरीबी देखने और सरकार की बुराई करने की अपेक्षा समस्या से लड़ने का रास्ता चुना. उम्मीद है कि भारत के लोगों को भी इससे सीख मिलेगी. और जैसा कि हमारे राष्ट्रपति जी कहते हैं, हमारे में समस्याओं से लड़ने की क्षमता है, और हम जीतकर भी दिखायेंगे.

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हमारी पहचान – भाग २

अक्टूबर 15, 2006

गतांक से आगे…

अब आप पूछेंगे, कि अगर इतना सब हो रहा है तो फिर आप ”वंदे मातरम्” पर ये पुराना ढोल काहे बजाते रहते हो, कि हमारे पूर्वजों ने ये किया, वो किया? नये ज़माने की बात करो. इस सवाल का जवाब भी एक और सवाल में है. एक बात बताईये, कोई इन्सान भारतीय कब कहलाया जा सकता है? बताईये, जवाब इतना मुश्किल भी नहीं है. एक आदमी, नाम ”फ़कीरचंद” कोलकता में साइकिल रिक्शा चलाता है आप कैसे बतायेंगे कि वो भारतीय है कि नहीं? उसका जन्म भारत में हुआ के नहीं यह देख कर, या उसका पासपोर्ट (जो उसके पास है ही नहीं!) देख कर. नहीं, भारतीयता, खून में, दिल-ओ-दिमाग़ में होती है. आज हमारा हीरो फ़कीरचंद, रोटी खाता, बंगाली भाषा में बात करता है, जरूरत पडे तो हिन्दी बोल लेता है. बहुत मेहनत कर के अपना और अपने बच्चों का पेट पालता है. हर दुर्गा पूजा के लिये अपना पेट काट कर सालभर पैसा जमा करता है, माँ की मूर्ति खुद अपने हाथ से बनाता है. ”मछेर झोल और भात” उसे अच्छा लगता है. अब सोचिये यही फ़कीरचंद अब एक बहुत बड़ी सोफ्टवेअर कंपनी में काम करता है. कोलकता में ही रहता है. साल में छह महीने देश के बाहर गुज़ारता है. बीवी और बच्चों को हर शनिवार घुमाने ले जाता है, खाना पिज़्ज़ा हट या मैकडोनाल्ड में खाता है. ”क्या करें, आज काल बच्चे इन सब चीजों के बिना रह ही नहीं सकते” दुर्गापूजा, कालीपूजा इन सब बातों के लिये उसके पास वक्त नहीं है. घर में सब अंग्रेज़ी में बात करते है. बच्चों को बंगाली आती है, बस ”किच्छु किच्छु” (उतनी ही आती है!), पेप्सी या कोक के बिना उन्हें खाना हज़म नहीं होता. और कहानी ऐसे ही आगे बढ़ती रही. अब बताईये कौन सा फ़कीरचंद आपको ज़्यादा भारतीय लगता है?

अब इसमे किसी भी फ़कीरचंद या उसके बच्चों का कोई दोष नहीं. पानी वहीं बहता है जहां ढलान हो. भारत की प्रगति के साथ साथ भारतीयता भी बढ़नी जरुरी है. विदेशों से आनेवाली हर चीज़ बुरी नहीं. परंतु, हमें क्या लेना है क्या नहीं, यह निर्णय हमारा होना चाहिये. मुझे भी पिज़्ज़ा पसंद है पर मेरी माँ की बनायी हुई मूँग की दाल की खिचड़ी और मेथी का साग (देसी घी के साथ!), कोई तुलना नहीं.

आज कल कुछ लोग ”ब्राण्ड इण्डिया” की बात करते है. मुझे बहुत दुख होता है यह सुनकर. यह देश हमारी माँ है, हमें इसे बेचने के लिये नहीं सजाना है. हमे उसे उसी भक्तिभाव से सजाना है जैसे माँ दुर्गा को सजाते है. इसलिये नहीं कि दूसरे देश उसे देख कर उसका सम्मान करें. इसलिये हम उसके बच्चे है. भारत महान था, है, और रहेगा. उसके लिये इश्तेहार लगाने कि ज़रूरत नहीं. कल आज और कल के इस खेल में अगर हमें जीतना है तो हमें जानना होगा की हम कल क्या थे और आज क्या हैं. सबसे ज़्यादा ज़रूरी यह है की आज हम जो भी हैं, वो हम कैसे बने? अगर हमारा कल समृद्ध था तो आज हम समृद्ध क्यों नहीं? ऐसी हमने कौन सी ग़लतियां कीं जिसका यह परिणाम है. हमें हमारी पहचान नहीं भूलनी है, नहीं तो हम जीत कर भी हार जायेंगे. हो सकता है कि एक दिन मैकडोनाल्ड को भी एक भारतीय कंपनी द्वारा खरीद लिया जाय, लेकिन वो तब तक भारतीय नहीं होगा जब तक उसमे, बर्गर के साथ साथ ”सरसों दा साग ते मक्के दी रोटी” ना मिले. जिस दिन ऐसा होगा, मित्रों, उस दिन मै गंगा में डुबकी लगाऊंगा. और अगर ऐसा न हुआ तो कमबख्त ”चाय” पीना छोड़ दूँगा!

क्रमश:… हमारे हिन्दी और अंग्रेजी चिट्ठों पर आयी टिप्पणियों से प्रेरित विचारों के साथ

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हमारी पहचान – भाग १

अक्टूबर 13, 2006

हमें शिकायत है, सारे जहां से शिकायत है. क्या कहा? क्यों? कभी भारत देश के बाहर किसी विकसित देश में निकले हो? नहीं? तो फिर कई तरह की बदनामी से बच गये भैया! ये विकसित देश वही देश हैं जहाँ, बच्चों को एक उम्र के बाद माँ-बाप से मिलने के लिये अपोइन्ट्मेन्ट लेना पड़ता है, मतलब अगर बच्चे मिलना चाहें तो! हाँ, कोई जबरदस्ती नहीं. जहाँ इतनी आज़ादी है के बच्चे अपने माता-पिता पर मुकदमा चला सकते है अगर उन्हे डाँटा गया तो. हाँ, तो मै क्या कह रहा था? हाँ, शिकायत है. शिकायत यह है की इन देशों के बहुत से लोग हमारे देश को इज्जत नहीं देते. कहने को मुँह खोल के भारत को “अनोखा देश, रंगबिरंगा देश, अनगिनत भाषाओं का देश कहेंगे” लेकिन चार दिन इन लोगों के साथ गुज़ारिये पता चल जायेगा कि ये लोग हमारे बारे में क्या सोचते है. अब इस जगह मैं वाचकों को दो हिस्सों में बाँटना चाहूँगा. एक जो इस विचारधारा के हैं, कि भैया वो लोग कुछ भी सोचें, हमें तो अपने रस्ते चलते रहना है. मैं ऐसे साधु पुरुषों को और स्त्रियों को सादर विनती करूँगा कि अभी इस लेख को पढ़ना बन्द कर दें. दूसरा गुट है ऐसे लोगों का जिन्हें ऐसी ही शिकायत है. तो मेरे शिकायत प्रधान बन्धुओं और भगिनिओं आओ, सोचें कि यह सब क्या है और क्यूँ है? हम बात करेंगे कुछ सवालों की और उनके जवाबों की. शुरु करें?

हाँ तो सबसे पहला सवाल, क्यूँ भाई भारत के लोग सर के बल चलते हैं या चाँदी सोना उगाते है जो सारी दुनियाँ उनका सम्मान करे? कुछ लोग कहेंगे, क्या बात करते हो? हमारे देश कि सांस्कृतिक धरोहर देखो, मंदिर देखो, हमारी विविधता में एकता देखो. जानते हो, शून्य की खोज हमारे देश में हुई, तुम जिसे पाइथागोरस थ्योरम के नाम से जानते हो उसे पाइथागोरस के २५० साल पहले बौधायन ने खोजा था. दिल्ली का लौह स्तंभ जानते हो १२०० साल तक खुली हवा, धूप, बारिश झेलते हुए खडा है, आज तक कोई माई का लाल वैसा लोहा तैयार नहीं कर सका है. दुनियाँ भर के वैज्ञानिक थक गये. भास्कर, आर्यभट्ट, पाणिनी, सुश्रुत नाम भी सुने है? दुनियाँ की सबसे पहली प्लास्टिक सर्जरी सुश्रुत ने की थी सदियों पहले. अणु कि खोज महर्षि कणाद ने इन फिरंगो से हजारों साल पहले की थी. वेद, गीता जैसे ग्रन्थ यहाँ लिखे गये. दुनियाँ का सबसे पहला विश्वविद्यालय हमारे यहाँ बना. अरे, जब यह आज के विकसित देश के लोग जानवरों की तरह जंगलों मे घूमते थे और कपडे़ पहनना सीख रहे थे, तब मेरे देश मे लोग सोने के तारों से भी वस्त्र बुना करते थे! शान्ति, शान्ति, शान्ति! मानते हैं आपकी बात. लेकिन यह तो हुई पुरानी बात. अब क्या हो रहा है? आज हम क्या हैं? अब हम फिर से बचे हुए वाचकों को दो हिस्सों में बांटते है. एक जो कहेंगे हाँ भाई सच है, इन लालची नेताओं ने हमें कहीं का नहीं छोडा. इसीलिये तो हम भारत छोड़कर यहाँ आकर बस गये. या फिर, इसी लिये हम कोशिश कर रहे है कि हमारा बेटा अमरीका मे बस जाये और हमें भी एक दिन इस नरक से छुटकारा दिला दे. वैसे हम वहाँ पर जाकर एक ब्लॉग शुरु करेंगे जिसमें अपने देश के बारे में उसकी महानता के बारे मे लिखेंगे. ऐसे लोग इस लेख को आगे पढकर अपना वक्त ज़ाया न करें, अमरीकी दूतावास कि क़तार बहुत लम्बी होती है, अभी जाकर नम्बर लगायेंगे तो शायद वीज़ा मिल जाये. जय रामजी की. हाँ भई, दूसरे हिस्से मे कोई बचा है? हाँ बिल्कुल हैं, धन्यवाद. आप ही देश कि आशा हैं. चलिये अब बात को आगे बढाते है. और आज की बात करते है.

एक वक्त हम भी काफ़ी निराश थे अपने देश से, लेकिन अब सूरत बदलती नजर आ रही है. बात है १९९१ की, जब प्रधान मंत्री पी.वी. नरसिम्हाराव के नेतृत्व में वित्त मंत्री डा. मनमोहन सिंह ने भारत की अर्थव्यवस्था का वैश्वीकरण शुरु किया. अब तो लोगों को विश्वास हो गया कि हम फिर से गुलामी की ओर जा रहे हैं. अब हर भारतीय कंपनी को विदेशी कंपनियाँ खरीद लेंगी. और ऐस कई मामलों में हुआ भी, केल्विनेटेर, लिम्का, गोल्ड स्पोट, जैसे कई उदाहरण दिये जा सकते है. लेकिन आज क्या हो रहा है १५ साल बाद? बात ज्यादा पुरानी नहीं है, ५ सितंम्बर २००६, एक सर्वेक्षण के अनुसार, १ जनवरी २००६ से ३० जून २००६ तक के छ्ह महीनों में, भारतीय कंपनियों ने २५५ विदेशी कंपनियों पर कब्जा कर लिया है या बहुत बड़ा हिस्सा खरीद लिया है. और इनमें से लगभग सारी कंपनियां विकसित देशों की ही है. इस सारी ”शोपिंग” की कीमत है लगभग १७ अरब अमरीकी डालर. पिछले साल इसी दौरान भारतीय कंपनियों ने ६ अरब अमरीकी डालर की खरीदारी की. मतलब १७५ प्रतिशत कि बढ़ोत्तरी एक साल के अन्दर. भारत आज तीसरा सबसे ज्यादा तेजी से विदेशी कंपनियाँ खरीदने वाला देश बन गया है. इसका मतलब ये कि जिस तरह से जब हम भारत में बने हुए शीतल पेय खरीदते है तब उस से होने वाला मुनाफ़ा भारत में नहीं भारत के बाहर बैठे उस कंपनी के मलिक के जेब में जाता है. वैसे ही अब भारतीय कंपनियाँ विदेशों से पैसा कमाकर हमारे देश को समृद्ध बनाने में मदद करेंगी. भारत की कई बड़ी समस्यायें भारत के लिये फायदेमंद साबित हो रही है. पहली समस्या – जनसंख्या. आज भारतीय नागरिक की औसत उम्र बहुत से देशों से कम है. मतलब, आने वाले २०-२५ सालों भारत में तुलनात्मक रुप से सबसे ज़्यादा जवान हाथ होंगे जब बाकी देशों में बूढ़ों की संख्या जवानों से ज्यादा होगी. दूसरी समस्या, भारत में व्यापार करना आग में चलने के बराबर है, जिसकी वजह से भारतीय व्यापारी, विदेशी व्यापरियों से ज्यादा आसानी से चुनौतियों का सामना कर पाते है. उदाहरणार्थ, फ़्रांस में आज व्यापार प्रबंधन के क्षेत्र में, किसी अभ्यर्थी के पास भारत में काम करने का अनुभव होना विशेष योग्यता माना जाता है. कई बड़ी-बड़ी विदेशी कंपनियों का प्रबंधन भारतीयों के हाथ है. भारत की अर्थव्यवस्था आज ८% की गति से बढ़ रही है. टाटा, रिलायंस, वीडियोकोन ही नहीं छोटी छोटी कंपनियाँ भी अब बहुराष्ट्रीय बन रही हैं. सिर्फ़ निजी कंपनियाँ ही नहीं, ओ.एन.जी.सी. जैसे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम भी दुनियाँ भर में अपने हाथ-पाँव फैला रहे हैं. सूचना प्रौद्यौगिकी और दवा के क्षेत्र में भारत विश्वस्तर पर प्रसिद्ध है ही.

क्रमश:

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इन्दौर के बढ़ते कदम

अक्टूबर 11, 2006

इन्दौर – विकास की राह पर तेज़ी से अपने कदम बढ़ाता एक शहर. यह शहर मुझे हमेशा से ही अपने घर की तरह प्रिय रहा है. यह बात अलग है कि यहाँ न तो मेरा घर है और न ही कोई रिश्तेदार! जो भी हो, मुझे इस शहर से बेहद लगाव है. चाहे कोई अमीर हो या ग़रीब, इस शहर ने हर एक को अपनाया है.

क्या नहीं है यहाँ? मराठों का इतिहास, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय और उससे जुड़े कई शिक्षण संस्थान. और हाँ, मैं शब-ए-मालवा को कैसे भूल सकता हूँ, गर्मियों की वो सुहानी शामें और वो ठण्डी हवायें, आह! “जैसे सहराओं में हौले से चले बाद-ए-नसीम!”

भारत के कोने-कोने से आकर यहाँ कितनी ही पीढ़ियों से लोग बसे हैं. मराठी, सिंधी, दक्षिण भारतीय, पंजाबी, मारवाड़ी, राजस्थानी और मालवा के मूल निवासी तो हैं हीं. खान-पान भी सभी प्रकार का, सभी प्रकार के भारतीय व्यंजन. इतनी विविधता है, इसीलिये तो इसको अक्सर मिनी-मुंबई कह दिया जाता है.

इन्दौर से एक घण्टे की दूरी पर हैं सतपुड़ा की पहाड़ियाँ, नर्मदा की घाटी तथा ओंकारेश्वर और महाकाल के मन्दिर. ओंकारेश्वर का धार्मिक महत्व तो है ही, साथ ही यहां की प्राकृतिक भी छटा देखते ही बनती है. यहाँ नर्मदा नदी ॐ की आकृति बनाती है.

इन्दौर को मध्य भारत की वाणिज्यिक राजधानी भी कहा जाता है और यहाँ सबकी पसंद और जेब के हिसाब से बहुत से बाज़ार हैं. ग्लोबस और रेडियो मिर्ची सबसे पहले यहीं आरम्भ हुये थे, और अब सेज़ और कई अन्य सूचना प्रौद्योगिकी पार्क भी शहर का मुख्य हिस्सा हो गये हैं.

अब मैं घूम-फिरकर उस बात पर आता हूँ जिसने मुझे इस लेख को लिखने को प्रेरित किया, और वह है इन्दौर का सड़क परिवहन तंत्र. इन्दौर का आधुनिक सड़क परिवहन तंत्र किसी भी विकसित देश को टक्कर देता है. अन्य सुविधाओं के अलावा इन्दौर के पास अभी ५० टाटा स्टार बसें हैं, जिनमें उपग्रहों से संचालित जी.पी.एस. के अलावा कम्प्यूटरीकृत टिकट मशीनें भी हैं! बस स्थानकों पर भी इलेक्ट्रानिक सूचना पट लगे हैं जिन पर यह देखा जा सकता है कि कौन सी बस कहां है, और कितनी देर में अमुक स्थानक तक पहुंचेगी. और इतनी सारी सुविधायें पुरानी नगर बस सेवा के किराये पर ही! इसके बावजूद भी इन्दौर नगर निगम ३-४ महीनों में ही इस सेवा से १ करोड़ रुपये का लाभ उठा चुका है. ये बसें समय पर आती हैं और विभिन्न मार्गों के हिसाब से अलग-अलग रंगों की हैं. बसों के कर्मचारियों को जनता के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये, इस बारे में भी एक प्रबंधन संस्था कर्मचारियों को प्रशिक्षण दे रही है. बसों के रख-रखाव पर तो विशेष ध्यान दिया ही जा रहा है.

इन्दौर के जिला कलक्टर श्री विवेक अग्रवाल के प्रयासों से ही यह सब संभव हो सका है. अभी फोन करके टैक्सी बुलाने की सार्वजनिक सेवा भी जल्दी ही शुरु होगी, और सड़कों पर पुराने टैम्पुओं का बोझ कुछ हल्का होगा.

दिल्ली को इन्दौर से इस बारे में कुछ सीखना चाहिये. दिल्ली चार साल में इस प्रकार की केवल ६ बसें ही सड़कों पर उतार पाया है. अभी अहमदाबाद ने भी इन्दौर के नक़्शे-क़दम पर चलने का निर्णय लिया है. बाकी बड़े शहरों को भी श्री अग्रवाल के इन्दौर से कुछ सबक लेना होगा. भारत ऐसे ही धीरे-धीरे विकास के मार्ग पर बढ़ता रहे, शुभकामनायें!