Archive for the ‘सम-सामयिक’ Category

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आसमान से आगे

जनवरी 17, 2007

एक और सफ़ल प्रक्षेपण! भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने १० जनवरी २००७ को ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण वाहक (पी.एस.एल.वी.) को चार उपग्रहों के साथ आकाश में रवाना कर वर्ष की धमाकेदार शुरुआत कर ही दी. एक वाहक में चार उपग्रह अपने आप में बड़ी उपलब्धि है. इन चार में से दो उपग्रह हमारे थे और दो दूसरे देशों के.

जब भी इसरो ऐसी सफलता प्राप्त करता है, मुझे दो घटनायें याद आ जाती हैं. तो पहले उन्हीं का उल्लेख करते हैं. पहली घटना है, प्रख्यात रसायनज्ञ प्रो. रघुनाथ अनंत मशेलकर का एक व्याख्यान जिसमें उन्होंने भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियों का ज़िक्र किया था. वे दक्षिण अफ़्रीका में एक ऐसे उपग्रह केन्द्र की यात्रा पर थे जहाँ विश्व के अनेक देशों द्वारा अंतरिक्ष में स्थापित उपग्रहों से प्राप्त जानकारी एकत्रित की जाती है और यथोचित रूप से वितरित की जाती है. प्रो. मशेलकर ने केन्द्र के अधिकारियों से अनुरोध किया कि वे उपग्रहों से प्राप्त सर्वश्रेष्ठ तस्वीरें उनको दिखायें. अधिकारी उनको एक कोने में ले गये और वहाँ आई.आर.एस.-१ सी द्वारा ली गयी तस्वीरें दिखायीं. जी हाँ, आई.आर.एस. मतलब इण्डियन रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट! प्रो. मशेलकर के लिये यह हर्ष और गर्व की सुखद अनुभूति थी.

दूसरी घटना है मई १९९८ की जब भारत ने नाभिकीय परीक्षण किये थे. उसके बाद अमेरिकी खुफिया विभाग सी.आई.ए. को सरदर्द हुआ कि उनके “की होल श्रृंखला” के जासूसी उपग्रह, खास तौर पर के.एच.-११, भला इस बात का पता पहले से कैसे नहीं लगा पाये. इस बारे में एक भारतीय अधिकारी ने कहा था कि यह अमेरिका की असफ़लता नहीं बल्कि भारत की सफ़लता है. हमको पता था कि उनके उपग्रह कब और क्या देखने में सक्षम हैं. इसका अर्थ अमेरिकी खुफ़िया विभाग के ही एक अधिकारी के इस कथन से समझा जा सकता है – “जिस देश के पास खुद इस तरह के आधा दर्जन उपग्रह हों, और जिसके एक दर्जन से अधिक उपग्रह अंतरिक्ष में घूम रहे हों, उसको आप इस प्रकार से बेवकूफ़ नहीं बना सकते. वे अच्छी तरह से जानते थे कि हम क्या देख रहे हैं और क्या नहीं”!

आइये जानें कि अपनी स्थापना के पश्चात् पिछले ४० वर्षों में इसरो की क्या उपलब्धियाँ रहीं. एक प्रक्षेपण में दो मुख्य भाग होते हैं – वाहक और उपग्रह. इन दोनों में प्रयोग होने वाली तकनीकियाँ सर्वथा भिन्न और क्लिष्ट होती हैं. और खर्चा तो होता ही है (हालांकि इसरो नासा के वार्षिक बजट के पचासवें हिस्से से भी कम धन में काम चला लेता है!). इसरो ने शुरु में उपग्रह निर्माण की तकनीकी विकसित की और अपने उपग्रहों को विदेशी प्रक्षेपकों सहायता से अंतरिक्ष में स्थापित किया. साथ-साथ प्रक्षेपक राकेटों के निर्माण की ओर भी ध्यान दिया गया. शुरु के प्रक्षेपक राकेट, जैसे एस.एल.वी.-३ कम भार वाले उपग्रहों (लगभग ४० किलोग्राम) को ही पृथ्वी से करीब ४०० किलोमीटर तक ले जाने में सक्षम थे. हमने प्रगति जारी रखी और यह सफ़र ए.एस.एल.वी. और पी.एस.एल.वी. से होते हुये अब जी.एस.एल.वी. तक आ पहुँचा है जो करीब २००० किलोग्राम के उपग्रह को भूस्थैतिक कक्षा (पृथ्वी से ३६००० किलोमीटर) में स्थापित करने में सक्षम है! यहाँ यह इंगित करना उचित होगा कि इसमें से अधिकांश तकनीकी स्वयं इसरो ने विकसित की है. यह कुछ निराशावादी भारतीयों और निष्क्रिय मीडिया की ही सोच की देन है कि हममें से बहुतों के विचार से हम विदेशों से तकनीकी खरीदते हैं या नकल करते हैं. खैर, मीडिया वाले भी दिवाली का राकेट बनाने और जी.एस.एल.वी. बनाने में अंतर की समझ कहाँ से रखें! रूस के नकलची – यह है खिताब हमारे कर्मठ वैज्ञानिकों और अभियन्ताओं का! ये वही वैज्ञानिक हैं जिन्होंने क्रायोजेनिक इंजन की तकनीकी स्वयं ही विकसित कर ली है! जाने दीजिये, इस बारे में चर्चा फिर कभी.

आज इसरो आकाश से बातें कर पा रहा है क्योंकि उसकी नींव विक्रम साराभाई, सतीश धवन, ए.पी.जे. अब्दुल कलाम और अन्य वैज्ञानिकों के मजबूत कंधों पर रखी गयी है. अभी आने वाले समय में चन्द्रयान-१ और २, जी.एस.एल.वी. एम.के.-२,३,४ की परियोजनायें प्रमुख हैं. इसरो निश्चित ही विश्व-स्तर का कार्य कर रहा है. हमारे पास टी.ई.एस., कार्टोसेट – १ और २ ऐसे उपग्रह हैं जिनकी विभेदन क्षमता १ मीटर से भी बेहतर है, और गुणवत्ता की दृष्टि से इनसे ली गयीं तस्वीरें “गूगल अर्थ” की सर्वश्रेष्ठ तस्वीरों के आस-पास हैं.

अब चर्चा करते हैं १० जनवरी को किये गये प्रक्षेपण की. प्रक्षेपण वाहक था पी.एस.एल.वी. सी.-७. यह पी.एस.एल.वी. द्वारा किया गया दसवाँ प्रक्षेपण था. इनमें पहले के अलावा बाकी नौ पूर्णत: सफ़ल रहे. इस बार पी.एस.एल.वी का काम था चार उपग्रहों को एक साथ अंतरिक्ष में लेकर जाना. इनमें से दो उपग्रह कार्टोसेट-२ और स्पेस रिकवरी कैप्सूल भारत के थे और एक था इंडोनेशिया का उपग्रह और दूसरा अर्जेन्टीना का ६ किलोग्राम का छोटा सा उपग्रह. ये चारों ६४० किलोमीटर की ऊँचाई पर स्थित ध्रुवीय कक्षा में सफ़लता पूर्वक छोड़ दिये गये. यह बारीक काम कितनी खूबसूरती से किया गया, इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मुख्य उपग्रह कार्टोसेट-२ को बिलकुल सही कक्षा में स्थापित करने में अपेक्षा से बहुत कम ईंधन खर्च हुआ और इससे उसकी उम्र दो वर्ष और बढ़ गयी!

इस प्रक्षेपण का मुख्य उपग्रह कार्टोसेट-२ एक दूर संवेदी उपग्रह है जिसका (पैन्क्रोमैटिक) कैमरा एक मीटर से भी बेहतर विभेदन क्षमता वाली तस्वीरें लेने में सक्षम है. इन तस्वीरों का उपयोग भारत और दूसरे देशों द्वारा शहर योजनाओं और कृषि में फ़सलों के निरीक्षण के लिये किया जायेगा. ऐसे उपग्रहों की तस्वीरें सैनिकों के लिये भी मददगार साबित हो रही हैं. उदाहरण के लिये कारगिल युद्ध में आई.आर.एस. से ली गयी तस्वीरें घुसपैठियों का ठिकाना ढूँढने में बहुत कारगर साबित हुयीं थीं. ऐसे अनुभव से प्रेरणा लेकर सन् २००१ में टी.ई.एस. उपग्रह बनाया गया जो पूरी तरह से भारतीय रक्षा सेनाओं को समर्पित है!

पी.एस.एल.वी. पर भारत भूमि से अंतरिक्ष तक की सवारी करने वालों में एस.आर.ई. (स्पेस कैप्सूल रिकवरी एक्सपेरिमेंट) भी है. यह एक विलक्षण प्रयोग है. करीब १२ दिन तक अंतरिक्ष यात्रा कराने के बाद २२ जनवरी को एस.आर.ई. को वापस धरती पर बुलाया जायेगा! यह बंगाल की खाड़ी के निकट पैराशूटों की सहायता से उतारा जायेगा जहाँ तट रक्षक इसके स्वागत के लिये पहले से ही उपस्थित होंगे. यह अद्भुत प्रयोग अंतरिक्ष में मानव भेजने की दिशा में भारत का पहला कदम भी माना जा सकता है. एस.आर.ई. को सफ़लतापूर्वक वापस बुलाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है. वापस आते समय हवा के घर्षण के कारण इसकी बाहरी सहत पर तापमान होगा करीब २००० डिग्री सेल्सियस, जबकि अंदर का तापमान करीब ४० डिग्री सेल्सियस. उल्लेखनीय है कि ऐसी परिस्थितियों का सामना भारतीय वैज्ञानिक अग्नि मिसाइल के समय पहले ही सफ़लतापूर्वक कर चुके हैं! एस.आर.ई. के प्रयोग की सफ़लता या असफ़लता इसरो की भावी दिशा निर्धारित करेगी.

सम्बन्धित कड़ियाँ:
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन का जालघर, पी.एस.एल.वी. प्रक्षेपण की आधिकारिक सूचना, सी.एन.एन. आई.बी.एन. पर प्रक्षेपण का समाचार (वीडियो)

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आकाश छू लो वायु सैनिकों !

अक्टूबर 8, 2006

आज भारतीय वायु सेना का पिचहत्तरवां जन्मदिवस है. हमारी वायु सेना विश्व की चार सबसे बड़ी वायु सेनाओं में से एक है. समय चाहे युद्ध का हो या शान्ति का, हमारी सेनायें सदैव अपना शौर्य और पराक्रम प्रदर्शित करती रही हैं. आज हमारे पास विश्व के सर्वश्रष्ठ लड़ाकू यान हैं – जागुआर, सुखोई और मिग के कई स्वरूप, और कुछ समय बाद हमारा अपना तेजस भी वायु सेना की शोभा बढ़ायेगा.

इस बार वायु सेना दिवस के आयोजन का प्रमुख स्थल था हिन्डन, ग़ाज़ियाबाद स्थित वायु सेना का अड्डा. इस समारोह ऐसा में बहुत कुछ था जो पहली बार हुआ. यह विश्व में पहला मौका था जब किसी देश की वायु सेना के प्रमुख सीधे वायु मार्ग से ही किसी समारोह में उतरे हों. जी हाँ, ६१ वर्षीय एयर चीफ़ मार्शल शशीन्द्र पाल त्यागी कोई कार या जीप नहीं, बल्कि एक पैराशूट लेकर समारोह में उपस्थित हुए!

परेड तो होनी ही थी, उसके बाद अपनी ही तरह की पहली (संगीतमय) ड्रिल परेड भी हुई. इसमें वायु सेना के जवानों का अद्भुत सामंजस्य देखते ही बनता था. सुखोई और मिग विमानों की कलाबाज़ियाँ दिखाकर हमारे विश्वस्तरीय चालकों ने सबका मन मोह लिया. इस समारोह में पहली बार सारंग दल के चार हेलीकाप्टरों ने एक साथ हवा में करतब दिखाये. ध्यान देने योग्य बात यह है कि हेलीकाप्टरों से इस प्रकार के करतब दिखाना बहुत कठिन कार्य होता है और इसके लिये कड़ी मेहनत और योग्यता की आवश्यकता होती है. विश्व में सारंग के अलावा केवल दो ही ऐसे दल हैं जो इस प्रकार का प्रदर्शन करने में सक्षम हैं! कार्यक्रम में इसके अलावा युद्ध में घायल सैनिकों को तत्परता के साथ सुरक्षित स्थान तक ले जाने की कार्यवाही का भी प्रदर्शन किया गया.

अंत में सूर्य-किरण दल ने भी आकाश में गोते लगाते हुए अलग अलग आकारों में तिरंगे को उकेरा.

इन सब से हमें न केवल गर्व की अनुभूति होती है, बल्कि देशवासियों में सुरक्षा की भावना भी आती है. हम कामना करते है कि हमारी वायु सेना सारी सीमायें लांघकर आकाश को छू ले, जैसा कि वायु सेना का आदर्श वाक्य है, और भगवद् गीता के ग्यारहवें अध्याय के चौबीसवें श्लोक की आरम्भिक पंक्तियाँ भी – नभ: स्पर्शं दीप्तम्.

अगर आप दूरदर्शन पर इस कार्यक्रम को न देख पाये हों तो यहाँ अवश्य देखिये, पूरे दो घण्टे तक मंत्रमुग्ध कर देने वाला एक जादू!

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नवीन भारत, नवीन विचार

सितम्बर 9, 2006

अपने बेटे की प्रतीक्षा में पलक-पाँवड़े बिछाये एक माँ, एक पिता के कदमों में वह उमंग, वह उत्सुकता; और दूर देस से उड़कर आने वाले बेटे के मन में ढेर सारी कल्पनायें. ऐसा ही कुछ होता है जब एक अप्रवासी भारतीय अपने घर जाता है, बिल्कुल अपनों के बीच! बसेरे से दूर बैठे-बैठे न जाने वह कौन सी डोर है जो खींचती रहती है बार-बार अपनी ओर? मुझे अपनी हाल की भारत यात्रा में ऐसा ही कुछ अनुभव हुआ.

वतन की मिट्टी की सोंधी खुशबू और घरवालों का उमड़ते हुए सागर सा आगाध प्रेम धरती के और किस कोने में मिलेगा? जब मैं ६ महीने बाद अपनी माँ से दिल्ली हवाई अड्डे पर मिला तब एक विदेशी का वीडियो कैमरा हमारी ओर खुद-ब-खुद मुड़ गया. पिछले डेढ़ साल में मैं तीसरी बार घर गया था.

इंदिरा गाँधी अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के आगमन कक्ष में कदम रखते ही मुझे मुझ जैसे और भी कई प्रसन्न चेहरे दिखे. गुड़गांव जाने के लिये राष्ट्रीय राजमार्ग-८ लिया और गाड़ी से बाहर झाँका तो पाया कि इन ६ महीनों में ही बहुत कुछ बदल गया है. विकास की एक साफ़ झलक दिखायी दे रही थी. मुझे भरोसा हुआ कि ऐसे ही छोटे-छोटे परिवर्तन जल्द ही भारत को विकसित देशों की क़तार में ला खड़ा करेंगे.

अगले कुछ दिनों में मैं कई बड़े-बड़े बाज़ारों, व्यावसायिक केन्द्रों पर गया और मुझे पहली बार आभास हुआ कि किसी भी मामले में ये यूरोप के किसी भी बाज़ार को टक्कर देते हैं. एक आम आदमी को यह विश्वास हो रहा है कि हम सभी प्रकार के उत्पाद बनाने में सक्षम हैं और किसी भी दृष्टिकोण से हमारे उत्पाद सर्वश्रेष्ठ हैं. यह आत्म-सम्मान और आत्म-निर्भरता एक बड़ी चीज़ है. मैंने मैकडोनाल्ड्स और पीज़ा हट में भीड़ देखी, तो उससे भी बड़ा जनसमूह चोर बाज़ार, सागर रत्न और मोती महल में था. मैंने पाया कि भारतीयों में विदेशी वस्तुओं को लेकर जो पागलपन था, वह काफ़ी हद तक दूर हुआ है. सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों की सेवाओं की गुणवत्ता में वृद्धि हुई है और लोगों का “चलता है” वाला रवैया कम हो रहा है. वे आज-कल सेवाओं की गुणवत्ता पर विशेष ध्यान दे रहे हैं.

हमारी अगली पीढ़ी देश के तकनीकि विकास और उससे जुड़े पहलुओं पर कहीं अधिक जागरूक हुई है. मैंने देखा कि कुछ किशोर एक समाचार चैनल को यातायात की ताज़ा जानकारी देने के लिये अपने मोबाइल से मल्टीमीडिया संदेश भेज रहे थे. यह जागरूकता ही देश का भविष्य है.

ऐसे बहुत सारे दृश्य अपनी आंखों में समेटकर, अपनों का ढेर सारा प्यार संजोकर और अपने देश के लिये गर्व की अनुभूति लेकर मैं वापस कोपनहेगन आ गया हूँ – इस आशा के साथ कि जल्द ही देश के विकास की जगमगाती हुई राह में एक छोटा सा दीप मेरा भी होगा.