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कुछ यूँ सोचें

अगस्त 20, 2006

बात कुछ ज़्यादा पुरानी नही है, शायद १५ अगस्त २००६ की ही है. ‘आज तक’ चैनल पर एक समाचार दिखाया गया जिसे देखकर मन विचलित हो उठा. हुआ यह था कि ‘आज तक’ वालों ने संसद के बाहर, हमारे देश के कुछ नेताओं से चुनिंदा सवाल पूछे. ये प्रश्न हमारे राष्ट्रीय प्रतीक, हमारे झण्डे, राष्ट्रीय गान और राष्ट्रीय गीत से सम्बन्धित थे. पर यह क्या! हमारे देश के कर्णधारों को यह सामन्य जानकारी भी नहीं! अधिकांश नेताओं ने गलत उत्तर दिये. मीडिया वाले अपनी आदत के अनुसार ऐसा प्रयोग फ़िल्म अभिनेताओं और प्रख्यात मॉडलों के साथ करके जनता का मनोरंजन तो करते आये थे, पर आज नेता भी निशाने पर! हमारी शिक्षा प्रणाली में इससे भी कठिन प्रश्नों के उत्तर ना पता होने पर छात्रों को अयोग्य या अनुत्तीर्ण घोषित कर दिया जाता है. क्या अयोग्य छात्र योग्य नेता बन सकते हैं?

खिन्न मन से इसी विषय पर सोच रहे थे कि हमारे एक जानकार श्रीमान ‘क’ का आगमन हुआ. हमारा चेहरा देखते ही समझ गये कि मौसम ठीक नहीं है. एक हितैषी के धर्म का पालन करते हुए उन्होने बाक़ायदा सहानुभूति भरे लहज़े में वजह पूछ डाली.

“इधर से ग़ुज़र रहा था सोचा आपसे मिलता चलूँ. वैसे भी आज बड़े दिनों बाद फुर्सत में हूँ, पर आप कुछ चिंतित हैं. कुछ परेशानी है क्या?”

वजह जान कर मित्रवर ने वही किया जो ९०% भारतीय करते हैं.

“हाय..बताओ..च्च..च्च…..यह भी नहीं पता. अरे यह तो पहले-दूसरे दर्ज़े में सिखाया जाता है. अब भैया इस देश का बेड़ा गर्क समझो. बताओ देश चलाने वालों को ही देश का आगा-पीछा नहीं मालूम….च्च..च्च..च्च”.

इसके बाद तो जो उन्होने देश की वर्तमान स्थिति की व्याख्या शुरू की तो रोके ना रुके. देश के नेताओं को विशिष्ट उपनामों से नवाज़ा गया. ये ऐसा, वो वैसा….! अब तक हमारी सहनशक्ति जब क्षीण हो चली थी, सो हमने कहा : जी बंधुवर, ठीक कहते हैं. सोचती हूँ इस विषय पर एक पत्र लिख कर किसी समाचारपत्र में छपने हेतु भेज दूँ. आप थोड़ा सहयोग करें तो अतिकृपा होगी. मेरा भाषाज्ञान थोड़ा कमज़ोर है, अत: आप प्रश्नों के उत्तर मुझे परिष्कृत भाषा में लिखवा दें.”

अब मान्यवर की सूरत देखने लायक थी. महोदय के जिस श्रीमुख से चंद क्षणों पूर्व निंदारस में पगे शब्दों की झड़ी लगी थी, अब उससे एक बोल ना फूट पा रहा था. बोले : मैं ज़रूर मदद करता, पर अभी कहीं जाना है. मुझ अकेली जान को दुनिया भर का काम पड़ा है.”

अपने अज्ञान पर पर्दा डालने की हड़बड़ी में महोदय यह भी भूल गये कि थोड़ी देर पहले ही अपने फुर्सत में होने का एलान कर चुके थे. खैर वह चले गये, मैने रोका भी नहीं. मन सोचने पर विवश हो गया कि ऐसे दोहरे मापदंड रखने वालों को क्या उन नेताओं पर टिप्पणी करने का कोई भी अधिकार है? जब भी ऐसी कोई घटना सामने आती है, आलोचकों की बाढ़ आ जाती है. हर भारतीय उस घटना का विशेलषण, वर्तमान स्थिति की निंदा व देश की लचर हालत पर टिप्पणी करना अपना परम धर्म समझने लगता है. भई आखिर विचारों की अभिव्यक्ति सबका मौलिक अधिकार जो ठहरा.

पर हम क्यूँ हमेशा समस्या का हिस्सा बनते हैं? समाधान की पहल क्यूँ नहीं करते? इसी घटना को सुन कर जितने भारतीयों के मन में यह विचार आया कि हमारे नेता कितने रद्दी हैं उनसे मेरा एक प्रश्न हैं : क्या आप वोट देते हैं?

यदि नहीं, तो अपने अंत:करण से पूछिये कि क्या आपको आलोचना का अधिकार प्राप्त है?

आलोचना या निंदा करना आसान है, पर समस्या का हल नहीं. यदि आप एक अच्छा व जागरूक नागरिक होने का दावा करते हैं तो ऐसी घटना या किसी भी अन्य विसंगति के बारे में जानकर आपको सबसे पहले स्वयं से ही प्रश्न करना होगा कि कहीं मैं भी तो इसका एक हिस्सा नहीं? मैं क्या करूँ कि इस समस्या के अंत की शुरुआत हो सके?

अधिक दूर की नहीं, पर कम से कम घर से तो पहल की जा सकती है ना! क्या नवागत पीढ़ी को इन आधारभूत प्रश्नों के उत्तरों से अवगत कराना हमारा ही कर्तव्य नहीं है? मुझे नहीं लगता कि बीते समय की घटनाओं के ‘पोस्टमॉर्टम’ से हम कुछ हासिल कर सकते हैं, किंतु अतीत की गलतियोँ से शिक्षा ले भविष्य को उज्ज्वल बनाने की पहल अवश्य कर सकते हैं, यह मेरा विचार है.

आइये, आज साथ मिल कर हम सभी भारतवासी यह संकल्प करें कि वर्तमान और आने वाली पीढ़ियों को हम इस अज्ञान के अँधेरे से बाहर निकालेंगे. हर उस बुराई को, विसंगति को, जिससे हमें शिकायत है, कम से कम अपने घर और आसपास के समाज में फ़ैलने से रोकने का प्रयास करेंगे. माना कि यह कार्य दुष्कर है और रास्ता लंबा, पर लंबे से लंबा सफ़र भी एक छोटे से क़दम से ही तो शुरू होता है.

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