Archive for अगस्त, 2006

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ये तारा वो तारा

अगस्त 18, 2006

मेरी एकाग्रमुद्रा को भंग करती हुई एक आवाज़. पत्तियों की खड़खड़ाहट में गुंथी हुई एक आवाज़ ! अद्भुत दृश्य है. मैं मकड़ी के जाले जैसे एक सघन जालतंत्र के झरोखे से आकाश में झाँकती हूँ. एक विशालकाय तश्तरीनुमा एण्टेना चौकसी करते हुये पहरेदार की तरह अपनी गर्दन घुमा रहा है. एक विलक्षण अनुभव है. मुझे दूर क्षितिज तक बस ऐसे ही एण्टेने दिखायी दे रहे हैं – किसी को ढ़ूँढ़ते हुए, कहीं से कुछ बटोरते हुए ये एण्टेने! यह है पुणे का एक सुदूरवर्ती गाँव खोडद, नारायणगाँव के निकट.

ये एण्टेने वास्तव में विश्व की सबसे बड़ी रेडियो दूरबीन हैं! तकनीकि रूप से कहें तो विशालकाय मीटरवेव रेडियो दूरबीन (Giant Metrewave Radio Telescope) या GMRT. करीब २५ किलोमीटर के क्षेत्र में ऐसे कुल ३० एण्टेने अंग्रेज़ी के अक्षर ‘Y’ की आकृति में लगे हुए हैं. हर एण्टेने का वजन लगभग ११० टन है (अर्थात् धान से लदे हुए ११ ट्रक!) और इन्हें घुमाकर आकाश में एक दिशा में स्थापित कर पाना अपने आप में भारतीय अभियांत्रिकी की बहुत बड़ी उपलब्धि है. इस रेडियो दूरबीन का कार्य १९८९ के आस-पास प्रख्यात भारतीय खगोल वैज्ञानिक प्रो. गोविंद स्वरूप के नेतृत्व में आरंभ हुआ था और १९९९ तक सभी एण्टेनों ने खगोलीय प्रेक्षण करना शुरु कर दिया था. रेडियो तरंगें उत्सर्जित करने वाले सभी खगोलीय पिण्डों के अध्ययन के लिये GMRT का प्रयोग विश्व के अनेक वैज्ञानिकों द्वारा किया जाता है. कुल प्रेक्षण समय के लगभग ४० प्रतिशत समय का उपयोग विदेशों, जिनमें बहुत बड़ा भाग विकसित देशों का है, के खगोलशास्त्री करते हैं

 

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GMRT का एक लक्ष्य सुदूरवर्ती दीर्घिकाओं (Galaxies) में उपस्थित हाइड्रोजन का पता लगाना है (धरती पर बैठे बैठे!). हमारे ब्रह्माण्ड का बहुत बड़ा हिस्सा हाइड्रोजन का है जिससे दीर्घिकाओं की भी रचना हुई है. ऐसा माना जाता है कि हर क्षण ब्रह्माण्ड फैल रहा है और दूर स्थित दीर्घिकाएं और भी दूर होती जा रही हैं. दूर जाते हुए पिण्डों से उत्सर्जित प्रकाश की प्रेक्षित तरंग द्धैर्य (Wave Length) बढ़ती जाती है. इसे डॉप्लर का सिद्धान्त कहा जाता है. अब दूरस्थ दीर्घिकाओं में हाइड्रोजन से हुए रेडियो उत्सर्जन का प्रेक्षण GMRT के माध्यम से संभव हो सकेगा.

आज प्रौद्योगिकी क्रान्ति के इस दौर में भारत को मूलभूत विज्ञान में निवेश करते देखना एक सुखद अनुभव है. भारतीय वैज्ञानिकों और अभियंताओं के सतत परिश्रम से ही यह चुनौतीपूर्ण कार्य संभव हो सका है.

अब एण्टेना रुक गया है, शायद उसकी तलाश पूरी हुई. मैं वापस अपने कार्यालय भवन जा रही हूँ. मुझे आगे बढ़ते हुए हर कदम में गौरव की अनुभूति हो रही है – अपने लिये और अपने देश के लिये!

कुछ कड़ियाँ: GMRT का आधिकारिक जालघर, राष्ट्रीय रेडियो खगोलिकी केन्द्र (NCRA), टाटा मूलभूत शोध संस्थान

(लेखिका स्वयं एक खगोलशास्त्री हैं और यह आलेख उनका अनुभव है.)

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भारतीय अंक प्रणाली

अगस्त 16, 2006

सुबह सुबह सेठ लक्खीमल मिल गये, जिनसे पिछले महीने मैंने DCCCLXXXVIII रुपये उधार लिये थे. अपना रास्ता बदलता कि उससे पहले ही सेठजी की आवाज़ आयी, “क्यों उधारचंद, कब वापस कर रहे हो”? मैंने कहा “बस पहली तारीख को पगार मिलते ही सब चुकता कर दूंगा. सेठजी बोले वो छोड़ो, XIV रुपया टक्का के हिसाब से जो सूद बनता है, सो दे दो अभी. मैंने पूछा “कितना हुआ”? सेठजी ने हिसाब तो शुरु कर दिया, पर पूरा नहीं कर पाये! भला हो उनका जो रोमन पद्धिति से हिसाब करते हैं!

अरब के व्यापारी इस मामले में बहुत होशियार निकले. उन्होंने 0 से 9 तक के सभी अंक भारतीयों से सीख लिये. जोड़-घटाना-गुणा-भाग भी सीख लिया. और तो और सारे विश्व में हमारी संख्या पद्धिति का प्रचार भी कर दिया. सो सारी दुनियां के लिये 0-9 कहलाये ‘अरेबिक नम्बर्स’ और अरब लोगों के लिये कहलाये ‘हिंदसा’, हिंदुस्तान से जो सीखे थे उन्होंने.

अब चमत्कार देखिये, जोड़-घटाना-गुणा-भाग में तो सहूलियत है ही (सो तो सेठ लक्खीमल जी ने आपको समझा ही दिया है!) पर और भी लाभ हैं. अब सीधा सा सवाल है – 1,2,3,4,….. कुल कितनी संख्यायें है? असीम, अगणित, अनंत! और रोमन पद्धिति में ज्यों-ज्यों संख्या बड़ी हुई, एक और नये चिन्ह (I, V, X, L, C, D, M इत्यादि) की आवश्यकता हुई. अत: रोमन पद्धिति अक्षम है सभी संख्याओं के निरूपण में! तो ऐसी पद्धिति तो स्वयं में अपूर्ण है, तो उससे और क्या अपेक्षा रखनी! दूसरी ओर भारतीय पद्धिति में 0 से लेकर 9, ये 10 चिन्ह ही पर्याप्त हैं किसी भी बड़ी से बड़ी संख्या को निरूपित करने के लिये!

जब भारतीय पद्धिति तेरहवीं शताब्दी में यूरोप पहुची तो रोमन कैथोलिक चर्च ने जमकर इसका विरोध किया और भारतीय पद्धिति को ‘शैतान का काम’ कहा! परन्तु सही बात कब तक दबायी जा सकती थी, सो अब परिणाम सबके सामने है.

और तो और, भारतीयों ने यह भी सिद्ध किया कि किसी भी संख्या का निरूपण मात्र दो चिन्हों (0 और 1) के माध्यम से ही संभव है. जी हाँ, यहाँ वर्तमान बाइनरी सिस्टम (द्विअंकीय प्रणाली) की ही बात की जा रही है, जो आज समूचे कम्प्यूटर विज्ञान का आधार है. पिंगला ने पांचवीं शताब्दी ई.पू. में ही यह द्विअंकीय प्रणाली खोज निकाली था, और वह भी साहित्य के माध्यम से! उनके छंद सूत्रों में, जो मूलत: संस्कृत श्लोकों के विन्यास और उनकी लंबाई को मापने के लिये प्रयोग किये गये थे, पूरी द्विअंकीय प्रणाली छिपी हुई है! सोचिये जो काम यूरोपीय लोग तेरहवीं शताब्दी तक अनगिनत चिन्हों के साथ करते थे (सो भी अधूरा!), वह पिंगला ने मात्र दो चिन्हों में कर दिखाया था ईसा से 500 साल पहले! यहां यह भी इंगित करना उचित होगा कि उस समय शून्य की संकल्पना करना कितनी बड़ी उपलब्धि रही होगी. आज का कम्प्यूटर विज्ञान उसी भारतीय प्रणाली, उसी गहरी सोच पर आधारित है.

कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है… कि भारत इस सबका पेटेण्ट ले ही लेना चाहिये, इससे पहले कि यह भी पराया हो चले!

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अर्पण

अगस्त 15, 2006

वन्दे मातरम् – सन् १८७५ की अक्षय नवमी को कंतलपाड़ा कस्बे के एक घर में बैठे ३७ बर्षीय युवक बंकिम की कलम पर माँ सरस्वती का डेरा जमा और उस कलम से निकला यह कालजयी क्रान्तिकारी गीत. हर दिल को छू गये ये शब्द. कितने सहज, कितने सरस, कितने कोमल, कितने पावन! और यदि लहू में दौड़ जायें तो इतने प्रचंड कि झंझावात बनकर शत्रु को अंतिम सीमा तक खदेड़ दें. गली में रणभेरी सी होती – वन्दे मातरम्, और निकल पड़ती सहस्रों नवयुवकों और बालकों की टोली ब्रिटिश सरकार के परखच्चे उड़ाने.

इतने सुंदर शब्द कि जिस सुर में गाओ, अपने से लगें. कभी राग काफ़ी, कभी झिंझोटी, कभी सारंग, कभी देस – जिसने जो चाहा उस सरगम में इन्हें महसूस किया. नेताजी की आज़ाद हिन्द फ़ौज में ‘कदम कदम बढ़ाये जा’ जैसे गीत को जामा पहनाने वाले कैप्टन राम सिंह ने तो वन्दे मातरम् की एक धुन प्रयाण गीत की तरह रच दी! बैण्ड की थाप पर सैनिकों के थिरकते कदम और इस धुन में बजता हुआ वन्दे मातरम्! आह, क्या मनोरम दृश्य रहा होगा!

दूरदर्शन पर कितनी ही बार सुबह-सुबह वन्दे मातरम् की धुन सुनकर जागते थे हम सब, ठीक वैसे ही जैसे कि हमारा देश जागा था बरसों पहले इस पुण्य श्लोक की गूंज सुनकर! आज उस जागरण के साठवें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं हम, और इस पावन अवसर पर माँ भारती के चरणों में अर्पित कर रहे हैं अपना एक प्रयास, इस चिट्ठे के माध्यम से.

अपने इस चिट्ठे पर भारत, इसके भूत, वर्तमान और भविष्य से जुडे़ सभी पहलुओं, साहित्य, राजनीति, विज्ञान, संगीत आदि पर चर्चा होगी. और बालक को तो अधिकार है ही अपनी माँ से रूठ जाने का, सो कभी-कभी ऐसे विषय भी चर्चा में होंगे जिनमें यह बालक अपनी माँ की किसी बात से अप्रसन्न होकर रूठा हुआ है.

 

वन्दे मातरम्: कुछ झलकियाँ

 

हमारा परिचय: हम कुछ भारतीय चिट्ठाकार हैं जो अपने इस चिट्ठे ‘वन्दे मातरम्’ में एक संयुक्त छद्मनाम ‘स्वाधीन’ के परचम तले अपने विचार प्रकट करेंगे. हमारा उद्देश्य है सर्वप्रथम हिन्दी चिट्ठाजगत, और तत्पश्चात् जन-जन को भारत के गौरवशाली इतिहास, विज्ञान आदि का बोध ठोस तथ्यों के माध्यम से कराना और इस प्रकार भारतमाता की सेवा करते हुए एक स्वर्णिम भविष्य की नींव रखना. निश्चित ही इस प्रक्रिया में हमें बहुत कुछ सीखने को मिलेगा, स्वाध्याय से और आप सब से.

आप सबको स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनायें!

वन्दे मातरम्!

आपके,
स्वाधीन

(निधि श्रीवास्तव, नोयडा, भारत
अमित कुलश्रेष्ठ, लूवां, बेल्जियम
परेश मिश्रा, कोपनहेगन, डेनमार्क
दिव्या श्रीवास्तव, कोपनहेगन, डेनमार्क
कनव अरोड़ा, कोपनहेगन, डेनमार्क
उमेश कढ़णे, आरहुस, डेनमार्क
सरिता विग, फ़्लोरेंस, इटली
नूतन गौतम, कानपुर, भारत
कैलाशचन्द्र पंत, पुणे, भारत
विवेक वर्मा, वेल्स, यू.के.
अभिजीत सिंह, इंदौर, भारत)